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Updated March 19th, 2024 at 11:29 IST

Lok Sabha Election 2024: पशुपति पारस को ले डूबा हाजीपुर सीट का हठ, चिराग क्यों बने बीजेपी की 'चाह'!

बिहार में एनडीए ने दलित वोटर्स को साधने के लिए चिराग पासवान को पशुपति पारस के ऊपर तरजीह दी। वजह क्या?

Reported by: Kiran Rai
Hajipur Chirag Paswan, Pashupati Paras
चाचा पशुपति पारस और चिराग पासवान | Image:PTI
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Pashupati Paras Vs Chirag Paswan:  NDA ने बिहार में सीट शेयरिंग के तय फॉर्मूले पर काम किया और टिकट बंटवारे को अंतिम रूप दे दिया। 40 में से बीजेपी को 17, जदयू को 16, 5 पर एलजेपी और 1-1 पर हिंदुस्तानी आवामी मोर्चा (हम) और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा दम खम दिखाएगी।

चर्चा में पशुपति के मुकाबले चिराग को तरजीह दिया जाना ही नहीं बल्कि दिवंगत केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान के भाई की जिद है। एक ऐसी जिसने उन्हें नजरअंदाज किए जाने पर मजबूर कर दिया।

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इग्नोर हुए पारस, चिराग ने खेला सटीक दांव

पारस पूरी तरह से गठबंधन के अंदर इग्नोर किए गए  हैं ये साफ हो गया है। वो भी तब जब, 2014 से पशुपति कुमार पारस NDA गठबंधन का हिस्सा रहे।  एक भी सीट न मिलने से उनका खेमा खफा है।  2021 में जब एलजेपी में टूट पड़ी तो चिराग हाशिए पर चले गए थे। फिर भी हार नहीं मानी। रामविलास पासवान के पुत्र ने जन आशीर्वाद यात्रा निकाली। जिसको भरपूर समर्थन मिला। पिता की विरासत को संभाल पाएंगे इसका विश्वास लोगों में पक्का बैठा। उन्हें सच्चा उत्तराधिकारी और पार्टी तोड़ने वाले को विश्वासघाती का दर्जा दिया गया। लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ा और एनडीए में तवज्जो मिल गई। इस बीच सूत्र पारस के राजद संपर्क में होने की ओर इशारा कर रहे हैं।

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चिराग मंझे सियासी खिलाड़ी की तरह आगे बढ़ते रहे। द्वार खुले रखे। मीडिया लगातार उनसे सवाल करता रहा, सूत्र कहते रहे कि भाजपा से नजदीकी बढ़ रही है तो महागठबंधन भी संपर्क साध रहा है लेकिन युवा सियासतदां अकलमंदी से हर सवाल को टालते रहे।  इस बीच चिराग एनडीए में नहीं थे, लेकिन उन्होंने कभी बीजेपी पर बड़े हमले भी नहीं किए। इतनी ही नहीं खुद को पीएम नरेंद्र मोदी का 'हनुमान' तक बताया था। जुलाई 2023 में चिराग दोबारा एनडीए में आ गए थे और हाजीपुर सीट को लेकर गंभीर थे।

क्या चाहते थे चाचा, जो भतीजे को मिला?

2019 में एलजेपी एक थी। बंटवारा नहीं हुआ था।  लेकिन रामविलास पासवान के निधन बाद  टूट पड़ गई। एक गुट चिराग ने बनाया तो दूसरा चाचा पशुपति पारस ने। दोनों दलित वोट बैंक का खुद को दावेदार साबित करते रहे। चाचा भाई के खून पसीने से सींची सीट चाह रहे थे तो बेटा बतौर उत्तराधिकारी खुद को ज्यादा बेहतर। अंततः युवा चिराग पारस के मुकाबले बीस साबित हुए। न हाजीपुर हाथ लगा न कोई और। हाजीपुर वही सीट है, जहां से चिराग के पिता रामविलास पासवान 9 बार लोकसभा सांसद रहे थे। 2019 में पशुपति पारस यहां से पहली बार चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे थे।

बिहार के जातीय समीकरण को देखें तो राज्य में दलितों की आबादी 20 परसेंट के आसपास है। इसमें भी पासवान साढ़े 5 फीसदी हैं, जो कोर वोटर है एलजेपी का। इससे क्या फर्क पड़ेगा, सवाल यही है। तो जवाब है एनडीए में रहकर लड़ाई लड़ने का दम। फायदा दोनों को है। एनडीए का बढ़ता कद और 5-6 फीसदी पासवान वोट बैंक दोनों के लिए पॉजिटिविटी का संचार करेंगे ऐसा राजनीति के पारखी मानते हैं।

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रामविलास पासवान की सीट पर दावेदारी की जंग!

1977 चुनाव में रामविलास पासवान ने जनता पार्टी के टिकट पर दम दिखाया। कांग्रेस उम्मीदवार को सवा चार लाख वोटों के अंतर से हरा गिनीज बुक में रिकॉर्ड दर्ज करा लिया। ये पहली बार था जब किसी नेता ने इतनी बड़ी जीत हासिल की थी।  1984 और 2009 का चुनाव छोड़कर वो कभी नहीं हारे। 2019 में भाई पशुपति के लिए सीट छोड़ राज्यसभा चले गए। 
 

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Published March 19th, 2024 at 10:12 IST

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