अपडेटेड 30 March 2025 at 09:54 IST
क्या हुआ था 1919 के जलियांवाला बाग कांड में? जिसके लिए ब्रिटिश सांसद ने UK को भारत से माफी मांगने की कर दी मांग
जलियांवाला बाग हत्याकांड आपको याद ही होगा, जब ब्रिटिश हुकूमत के जनरल डायर के एक इशारे पर निर्दोष लोगों पर गोलियां चला दी गईं थी।
- अंतरराष्ट्रीय न्यूज
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Jallianwala Bagh Mascare History : भारत के इतिहास में सबसे काले दिनों में से एक जलियांवाला बाग नरसंहार कांड का मुद्दा ब्रिटिश संसद में तब गूंज उठा जब वहां के विपक्षी सांसद बॉब ब्लैकमैन (हैरो ईस्ट) ने अपनी ही सरकार से इसपर भारत से माफी मांगने की मांग कर दी। जी हां, जलियांवाला बाग हत्याकांड आपको याद ही होगा, जब ब्रिटिश हुकूमत के जनरल डायर के एक इशारे पर निर्दोष लोगों पर गोलियां चला दी गईं थी, तब तक वो गोलियां चलती रही जबतक की उनकी गोलियां खत्म नहीं हो गई।
इसमें 1500 बेकसूर भारतीयों की मौत हो गई और 1200 से ज्यादा लोग घायल हो गए। सांसद ने अपनी सरकार से अपील की कि 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग नरसंहार कांड की बरसी से पहले एक बयान जारी करके ब्रिटिश सरकार द्वारा गलती स्वीकार की जाए और भारत के लोगों से माफी मांगी जाए।
जब तक गोलियां खत्म नहीं हो गईं लोगों को मारते रहे- सांसद बॉब
सांसद बॉब ब्लैकमैन ने ब्रिटिश पार्लियामेंट में मुद्दा उठाते हुए बोला- '13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग में परिवार अपने दिन का आनंद लेने के लिए शांतिपूर्वक एकत्र हुए थे, लेकिन जनरल डायर ने ब्रिटिश सेना को निर्दोष लोगों पर गोली चलाने का आदेश दिया। जब तक कि उनकी गोलियां खत्म नहीं हो गईं, तबतक निहत्थे लोगों पर हमले किए गए। इस नरसंहार में 1,500 लोग मारे गए और 1,200 घायल हुए। ब्रिटिश साम्राज्य पर ये एक धब्बा है और कहा कि 2019 में तत्कालीन प्रधानमंत्री टेरेसा मे ने इस घटना को स्वीकार किया था, लेकिन कोई औपचारिक माफी नहीं मांगी गई।
जलियांवाला बाग के बारे में हर भारतीय को पता होना जरूरी
जलियांवाला बाग नरसंहार भारत की आजादी की लड़ाई की सबसे दुखद घटनाओं में से एक है। 13 अप्रैल 1919 को पंजाब के अमृतसर में जनरल माइकल ओ’ डायर के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने शांतिपूर्ण सभा में शामिल लोगों पर अंधाधुंध गोलियां चलाई थीं। घटनास्थल पर आज भी दीवार पर गोलियों के निशान और एक कुआं संरक्षित है, जिसमें लोग जान बचाने के लिए कूद गए थे।
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हत्याकांड ने पूरे भारत झकझोर दिया था
उस वक्त जलियांवाला बाग हत्याकांड ने पूरे भारत और दुनिया को झकझोर कर रख दिया। इसने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की क्रूर प्रकृति को उजागर किया और व्यापक निंदा को जन्म दिया। ब्रिटिश सरकार ने शुरुआत में डायर के कार्यों का बचाव किया, लेकिन उसे भारत के भीतर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारी दबाव का सामना करना पड़ा। इस घटना ने भारतीय राष्ट्रवादियों को एकजुट किया और औपनिवेशिक शासन के खिलाफ विभिन्न गुटों को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस घटना के बाद महात्मा गांधी ने कहा था- 'भारत के असंभव पुरुष उठेंगे और अपनी मातृभूमि को आज़ाद कराएंगे'। इस घटना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक अहम मोड़ ला दिया, जिसके बाद भारत के लोगों ने आजादी की लड़ाई और तेज कर दी।
जिसने ब्रिटिश साम्राज्य को चुनौती दी, जानिए कौन है
11 जुलाई 1857 को मालाबार (वर्तमान केरल) में जन्मे शंकरन नायर एक प्रख्यात वकील और प्रखर राष्ट्रवादी थे। वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य के रूप में, उन्होंने ब्रिटिश शासन की नीतियों को करीब से देखा और भारतीयों के अधिकारों की वकालत की। लेकिन 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार ने उनकी सोच और दिशा को पूरी तरह बदल दिया। जब जनरल डायर के आदेश पर सैकड़ों निहत्थे भारतीयों को निर्ममता से गोलियों से भून दिया गया, तो नायर ने चुप रहने के बजाय इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने का फैसला किया।
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उन्होंने तत्काल प्रभाव से वायसराय परिषद से इस्तीफा दे दिया, जो ब्रिटिश प्रशासन के प्रति उनके असंतोष और विरोध का ऐतिहासिक प्रमाण था। लेकिन उनका संघर्ष यहीं नहीं रुका। उन्होंने ब्रिटिश शासन की क्रूरता को दुनिया के सामने लाने के लिए गांधी एंड एनार्की नामक एक पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने न केवल ब्रिटिश नीतियों की कठोर आलोचना की, बल्कि उनकी बर्बरता को भी उजागर किया। उनके इस निर्भीक कदम के कारण ब्रिटिश सरकार ने उनके खिलाफ लंदन में मानहानि का मुकदमा दायर किया, जिसे नायर ने पूरी ताकत और साहस के साथ लड़ा।
एक भूला हुआ विरासत
भले ही शंकरन नायर ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बेहद अहम भूमिका निभाई हो, लेकिन उनकी विरासत को इतिहास के पन्नों में वह जगह नहीं मिली, जिसकी वह हकदार थे। जहां महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों को भरपूर सम्मान दिया गया, वहीं नायर की निडरता और ब्रिटिश शासन के खिलाफ उनके सशक्त संघर्ष को उतनी प्रमुखता नहीं मिली।
होम रूल के समर्थन में एनी बेसेंट के साथ उनके प्रयास, और 1919 के मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों में उनकी भूमिका, जो भारतीयों को प्रशासन में अधिक भागीदारी देने के उद्देश्य से लागू किए गए थे, स्वतंत्रता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम थे। फिर भी, ये योगदान मुख्यधारा के इतिहास में अपेक्षित पहचान हासिल नहीं कर पाए।
अब समय आ गया है कि उनके योगदान को सम्मान दिया जाए
जब दुनिया भर में औपनिवेशिक अत्याचारों पर माफी की मांग तेज हो रही है, तो भारत को भी अपने नायकों को उचित सम्मान देने पर आत्ममंथन करना चाहिए। सी शंकरन नायर द्वारा दिखाया गया साहस और नैतिक दृढ़ता अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध का प्रतीक है। उनकी विरासत को पाठ्यक्रम में शामिल करने, उनके नाम पर स्मारक बनाने और उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित करने जैसे कदम उठाए जाने चाहिए।
ब्रिटिश सरकार से माफी की मांग अतीत के अन्याय को स्वीकार करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, लेकिन भारत के लिए सबसे बड़ी श्रद्धांजलि यह होगी कि वह अपने इतिहास के नायकों को उचित सम्मान दे। सर सी शंकरन नायर का दृढ़ संकल्प और ब्रिटिश शासन के खिलाफ उनकी निडर लड़ाई भारतीय इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखे जाने योग्य है।
Published By : Nidhi Mudgill
पब्लिश्ड 29 March 2025 at 16:34 IST