अपडेटेड May 2nd 2025, 19:48 IST
Muslim Population Caste Census: केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा जातिगत जनगणना का निर्णय एक ऐतिहासिक और क्रांतिकारी कदम माना जा रहा है। इस पहल से न केवल हिंदू जातियों की सामाजिक संरचना और स्थिति का मूल्यांकन किया जाएगा, बल्कि पहली बार मुस्लिम समुदाय के भीतर मौजूद जातियों की भी विस्तृत गिनती की जाएगी। अब तक मुस्लिमों को केवल एक धार्मिक समूह के रूप में दर्ज किया जाता रहा है, जिससे उनके भीतर की सामाजिक और आर्थिक विविधताओं पर स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं थी। इस जनगणना से मुस्लिम समुदाय की जातियों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति से जुड़े ठोस आंकड़े सामने आएंगे, जो नीति निर्माण और सामाजिक न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण आधार बन सकते हैं।
जातिगत जनगणना को लेकर यह उम्मीद की जा रही है कि इससे मुस्लिम समुदाय को अब तक एकसमान वोटबैंक के रूप में देखने की परंपरा पर रोक लगेगी। अभी तक इस समुदाय को एक धार्मिक समूह मानकर ही राजनीतिक समीकरण बनाए जाते रहे हैं, जिससे तुष्टिकरण की राजनीति को बढ़ावा मिला, लेकिन अब जब हिंदू समाज की तरह मुस्लिम समाज के भीतर भी जातिगत विविधताओं को सामने लाया जाएगा, तो उस एकरूपता की धारणा टूटेगी। इस पहल का सबसे बड़ा असर पसमांदा मुस्लिम समुदाय पर पड़ सकता है, जो मुस्लिम समाज का लगभग 85 प्रतिशत हिस्सा हैं। सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े होने के बावजूद, पसमांदा मुस्लिमों को आज तक न तो पर्याप्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिला और न ही सामाजिक न्याय की दिशा में ठोस कदम। इनकी जातिगत पहचान को कभी गंभीरता से नहीं गिना गया। लेकिन जातिगत जनगणना के जरिए अब इनकी वास्तविक स्थिति के आंकड़े सामने आएंगे, जिससे उनकी आवाज को नजरअंदाज करना मुश्किल होगा।
सियासत की चालें अब सिर्फ बहसों तक सीमित नहीं रहीं। अब आंकड़ों की ताकत से सत्ता की दीवारें हिलाने की तैयारी हो रही है। केंद्र और राज्यों की नज़रों में एक नई गणना की आहट है – मुस्लिम समाज के भीतर जातिगत जनगणना। एक बार जब यह गणना पूरी होगी, तो भारत के करोड़ों पसमांदा मुसलमान जिन्हें अभी तक समाज की सबसे हाशिए पर रखा गया – वे अपने संख्याबल के आधार पर सामाजिक और राजनीतिक हिस्सेदारी की मांग करने के लिए पूरी तरह तैयार होंगे। इस रणनीति की झलक पहले ही मिल चुकी है। असम में हिमंता बिस्व सरमा सरकार ने पिछले साल मुस्लिम समुदाय के भीतर जातिगत सर्वेक्षण कराया। नतीजा? असम के "मूल मुसलमानों" को अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा देने की घोषणा कर दी गई एक ऐसा कदम, जिसने सत्ता के समीकरणों को झकझोर दिया।
इन सबके बावजूद सवाल ये उठता है क्या यह सिर्फ सामाजिक न्याय की कोशिश है, या एक नया पॉलिटिकल गेम? क्या जातिगत जनगणना मुस्लिम समाज के भीतर नई खाई भी खोद सकती है? सत्ता की गलियों में फुसफुसाहट तेज़ है। पसमांदा समाज अब सिर्फ सहानुभूति नहीं, हक चाहता है। और शायद आने वाले चुनावों में उनकी गिनती ही सबसे बड़ा हथियार बन सकती है। भारत, जहां वोटों की राजनीति में हर तबके की अहमियत है, वहीं एक तबका अब भी हाशिए पर खड़ा है पसमांदा मुसलमान। एक सच्चाई जो चुभती है। देश के 32 वक्फ बोर्डों में एक भी पसमांदा मुस्लिम की आवाज़ नहीं है। न प्रतिनिधित्व, न भागीदारी मानो उनके हक पर अघोषित तालाबंदी कर दी गई हो।
वक्फ बोर्ड जो मुस्लिम समाज की संपत्तियों और संसाधनों का प्रबंधन करता है वहां फैसले होते हैं, लेकिन पसमांदा समाज के बिना। लेकिन अब यह चुप्पी टूटी है। मोदी सरकार ने हाल ही में वक्फ संशोधन कानून में एक बड़ा बदलाव किया। पहली बार इस बात को कानूनी रूप दिया गया कि वक्फ बोर्डों में पसमांदा समाज को भी प्रतिनिधित्व मिले। कानून कहता है अब हर वक्फ बोर्ड में कम से कम दो पसमांदा प्रतिनिधि होना अनिवार्य होगा। यह फैसला जितना सामाजिक न्याय की दिशा में कदम माना जा रहा है, उतना ही राजनीति के एक नए अध्याय की शुरुआत भी। क्या यह बदलाव पसमांदा समाज को वक्फ की सत्ता के दरवाज़े तक ले जाएगा? या फिर यह सिर्फ एक और दिखावटी वादा बनकर रह जाएगा? सवाल कई हैं, लेकिन संकेत साफ़ है कि अब पसमांदा सिर्फ गिनती नहीं, हिस्सेदारी चाहता है।
पब्लिश्ड May 2nd 2025, 19:48 IST