अपडेटेड 7 June 2025 at 17:04 IST
Widows Village in India: कल्पना कीजिए कि कोई ऐसा भी गांव हो जहां महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा हो। तो हम आपको बता दें कि ऐसा गांव हमारे देश में ही मौजूद है। यहां पर ऐसा गांव है जिसमें पुरुषों से ज्यादा महिलाएं रहती हैं वो भी 70 फीसदी महिलाएं विधवा हो जाती है इस वजह से इस गांव को 'विधवाओं का गांव' भी कहा जाता है। राजस्थान के बूंदी जिले का 'बुधपुरा' गांव देशभर में एक त्रासदी का प्रतीक बन गया है, जिसे लोग अब ‘विधवाओं का गांव’ कहने लगे हैं। यहां एक के बाद एक पुरुषों की असमय मौतें इस उपनाम के पीछे की भयावह सच्चाई को उजागर करती हैं। गांव के युवा पुरुषों की हो रही मौतों की बड़ी वजह है गांव के आसपास की बलुआ पत्थर (sandstone) की खदानें, जहां अधिकांश पुरुष मजदूरी करते हैं। इन खदानों में काम करते हुए वे सिलिका, धूल के लगातार संपर्क में आते हैं, जिससे उन्हें सिलिकोसिस नाम की लाइलाज और जानलेवा बीमारी हो जाती है। यह बीमारी फेफड़ों को धीरे-धीरे निष्क्रिय कर देती है और समय पर इलाज न मिलने के कारण अधिकतर मरीज असमय मौत का शिकार बन जाते हैं।
इलाज की कमी, जागरूकता का अभाव और सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा ने बुधपुरा को एक ऐसे गांव में बदल दिया है जहां हर घर में एक विधवा की पीड़ा बसी है। यह गांव आज पर्यावरणीय और सामाजिक न्याय की अनदेखी का जीता-जागता उदाहरण बन गया है। यहां खनन और पत्थर कटाई का काम कटर मशीनों से किया जाता है। इस प्रक्रिया में उड़ने वाली बारीक सिलिका डस्ट मजदूरों के फेफड़ों में जाकर जमा हो जाती है, जिससे उन्हें सिलिकोसिस नाम की घातक और लाइलाज बीमारी हो जाती है। गांव में जब भी किसी के मुंह से खून निकलता है, तो परिवार वालों को सबसे पहले यही डर सताने लगता है, 'कहीं यह सिलिकोसिस तो नहीं?' बुधपुरा में सिलिकोसिस से मृत्यु दर इतनी अधिक है कि यहां अधिकांश घरों में विधवाएं रह गई हैं। रोज़ी-रोटी की मजबूरी में लोग आज भी खदानों में काम कर रहे हैं, लेकिन हर सांस के साथ एक अदृश्य मौत भी उनके साथ चलती है। बुधपुरा अब केवल एक गांव नहीं, बल्कि खनन के जोखिम और सरकारी उपेक्षा की एक दर्दनाक मिसाल बन गया है।
बुधपुरा का आकाश हमेशा नहीं होता, कभी-कभी वह भी भारी बादलों से घिर जाता है, जैसे यहां की ज़िंदगी में भी अंधेरा छा जाता है। जब इस गांव के घरों का कमाऊ पुरुष असमय मौत की चपेट में आता है, तो उनकी विधवा महिलाएं खुद को अकेले ही परिवार की ज़िम्मेदारी संभालते पाती हैं। यह दर्दनाक सच है कि वे अपने टूटे दिल के साथ दिन के 10-10 घंटे बलुआ पत्थर तोड़ने और तराशने के लिए मजबूर हैं, ताकि अपने बच्चों के लिए एक छोटी सी रोटी जुटा सकें। गांव के बुजुर्गों की बातें सुनें तो पता चलता है कि सैकड़ों ऐसी महिलाओं ने ये कड़ी मेहनत उसी जगह की है, जहाँ उनके पति ने सांसें छोड़ दीं। यही वो खदानें हैं, जो उनकी खुशियों को मिटा गईं। यहां काम करने वालों की आमदनी सिर्फ 300-400 रुपये रोजाना है, जो किसी भी परिवार के लिए एक मर्मांतक सच्चाई है। और जब विकल्प बेहद कम हों, तो मजबूरी ही एक ऐसा साथी बन जाती है जो उनकी हर सांस पर सवार रहता है।
जब महिलाएं बलुआ पत्थर तराशने में लगी होती हैं, तो उनके छोटे-छोटे बच्चे भी परिवार की मदद करने के लिए उसी कड़ी मेहनत में जुट जाते हैं। बचपन की मासूमियत कहीं खो जाती है, और इन बच्चों की सांसें भी धीरे-धीरे खदानों की धूल में घुटने लगती हैं। जब वे डॉक्टरों के पास पहुंचते हैं, तो अक्सर उनकी सांसें फूल रही होती हैं या वे श्वसन तंत्र की गंभीर बीमारियों से जूझ रहे होते हैं। इतनी भयावह स्थिति है कि जांच में आधे से ज्यादा मरीजों में सिलिकोसिस की पुष्टि होती है। दुख की बात यह है कि अधिकतर लोग तब डॉक्टर के पास आते हैं जब बीमारी ने उनकी जान चीरने की सारी हदें पार कर ली होती हैं। तब इलाज शुरू होता है, लेकिन उस समय बीमारी इतनी आगे बढ़ चुकी होती है कि मरीजों को कोई खास फायदा नहीं मिल पाता। अगर समय रहते इस जानलेवा संक्रमण का पता चल जाता और इलाज शुरू हो जाता, तो कई जिंदगियां बचाई जा सकती थीं। लेकिन यहां की वास्तविकता इतनी क्रूर है कि अधिकांश कामगार बहुत देर से बीमारी की जानकारी पाते हैं, और तब तक मौत ने उनके घर दस्तक दे दी होती है।
बुधपुरा का ये सच बेहद करुण और दर्दनाक है कि 35 साल से ऊपर की उम्र की लगभग 70 फीसदी महिलाओं के पति इस दुनिया में नहीं रहे। इस दुखद हकीकत को लेकर गांव में एक कहावत तक चल पड़ी है। 'यहां के पुरुषों को कभी बुढ़ापा नहीं आता।' जवानी की उम्र में ही ये पुरुष सिलिकोसिस नाम की जानलेवा बीमारी के चलते दम तोड़ देते हैं, जो उनके परिवारों को अधूरा छोड़ जाती है। इसी वजह से बुधपुरा में विधवाओं की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। सिलिकोसिस अब इस गांव के लोगों की नसीब बन चुकी है, एक ऐसी सजा जो उनकी मेहनत और उम्मीदों को चीरती चली जाती है। अगर सरकार ने खनिकों की सुरक्षा के लिए सख्त और प्रभावी कानून नहीं बनाए, तो यह बीमारी और मौतें अनियंत्रित रूप से बढ़ती रहेंगी, और बुधपुरा की यह ग़मगीन कहानी और भी गहरी होती जाएगी। यहां की मिट्टी में न केवल पत्थर छुपे हैं, बल्कि टूटते परिवारों, टूटती ज़िंदगियों और अधूरे सपनों का दर्द भी गहरा समाया है।
पब्लिश्ड 7 June 2025 at 17:04 IST