अपडेटेड 11 July 2025 at 19:58 IST
OMG: 40 साल तक कोर्ट में तारीख दर तारीख... फिर सिर्फ 1 दिन की सजा, जवानी की गलती और 90 साल की बुढ़ापे में फैसला
मामला उस समय का है जब भारतीय राज्य व्यापार निगम (STC) के तत्कालीन चीफ मार्केटिंग मैनेजर सुरेंद्र कुमार पर एक निजी फर्म से ₹15,000 की रिश्वत मांगने का आरोप लगा था। शिकायतकर्ता हामिद ने सीबीआई को सूचना दी, और छापेमारी के दौरान सुरेंद्र कुमार रंगे हाथों पकड़े गए।
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दिल्ली हाईकोर्ट ने 1984 के एक चर्चित भ्रष्टाचार मामले में आरोपी 90 वर्षीय बुज़ुर्ग को बड़ी राहत दी है। अदालत ने उनकी तीन साल की सजा को घटाकर केवल एक दिन की कारावास में बदल दिया। यह ऐतिहासिक फैसला न्यायमूर्ति जसमीत सिंह की एकल पीठ ने सुनाया। न्यायमूर्ति सिंह ने अपने फैसले में भारतीय न्याय प्रणाली में देरी को गंभीरता से उठाया और इसे ‘स्वॉर्ड ऑफ डैमोकल्स’ (Damocles की तलवार) के रूप में वर्णित किया। यानि कि एक ऐसा खतरा जो दशकों तक आरोपी के सिर पर मंडराता रहा। कोर्ट ने कहा कि इस व्यक्ति को लगभग 40 वर्षों तक अदालती प्रक्रिया का सामना करना पड़ा, जो अपने आप में एक मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक सजा थी। 'इतने लंबे समय तक मुकदमा चलना, व्यक्ति के मन और जीवन पर गहरा असर डालता है।'
न्यायमूर्ति ने टिप्पणी की, इस फैसले को न केवल विलंबित न्याय प्रणाली पर एक टिप्पणी के रूप में देखा जा रहा है, बल्कि यह यह भी दिखाता है कि उम्र, समय और परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए न्याय में मानवीय संवेदना कैसे जोड़ी जा सकती है। दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में 1984 के एक बहुचर्चित भ्रष्टाचार मामले की सुनवाई के दौरान न्याय व्यवस्था में देरी को लेकर महत्वपूर्ण टिप्पणी की। अदालत ने स्वॉर्ड ऑफ डैमोकल्स' (Damocles की तलवार) का उदाहरण देते हुए कहा कि वर्षों तक मुकदमेबाज़ी झेलते रहना किसी व्यक्ति के ऊपर हमेशा लटकती उस तलवार के समान होता है, जो कभी भी गिर सकती है, और यह स्थिति न्याय के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है।
3 साल की सजा घटाकर एक दिन की हुई
न्यायमूर्ति जसमीत सिंह की एकल पीठ ने 90 वर्षीय आरोपी की तीन साल की सजा को घटाकर केवल एक दिन की सजा में बदलते हुए कहा कि यह व्यक्ति लगभग 40 वर्षों तक कानूनी प्रक्रिया का सामना करता रहा। यह लंबी प्रतीक्षा अपने आप में एक गहरी मानसिक और भावनात्मक सजा थी। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब किसी के सिर पर एक पतले धागे से तलवार लटकी हो, तो वह हर पल भय के साये में जीता है। ऐसी स्थिति केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक और सामाजिक तौर पर भी व्यक्ति को तोड़ देती है। इस फैसले को न केवल न्यायिक संवेदनशीलता का प्रतीक माना जा रहा है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि न्याय केवल सजा देने तक सीमित नहीं है, उसमें मानवीय दृष्टिकोण और समय की सच्चाई को समझना भी उतना ही आवश्यक है।
कोर्ट में मानवीय संवेदना और संवैधानिक अधिकारों पर की गई टिप्पणी
दिल्ली हाईकोर्ट में यह निर्णय न्यायमूर्ति जसमीत सिंह की एकल पीठ ने सुनाया, जिसमें न्याय में देरी, मानवीय संवेदना और संवैधानिक अधिकारों पर गंभीर टिप्पणी की गई। अदालत ने अपने फैसले में ‘स्वॉर्ड ऑफ डैमोकल्स’ का ज़िक्र करते हुए कहा कि यह प्रतीक उस सतत भय और मानसिक बोझ को दर्शाता है, जो व्यक्ति के सिर पर लंबे समय तक मुकदमे की तलवार लटकने से उत्पन्न होता है। यह स्थिति न्याय के बुनियादी सिद्धांतों के विरुद्ध है। न्यायालय ने माना कि दोषी अब 90 वर्ष के हैं और कई गंभीर बीमारियों से पीड़ित हैं। इस अवस्था में उन्हें जेल भेजना उनके जीवन के लिए स्थायी और अपूरणीय क्षति बन सकता है। कोर्ट ने इसे ध्यान में रखते हुए सजा में यह अभूतपूर्व राहत दी। इसके साथ ही कोर्ट ने इस बात पर भी गहरी चिंता व्यक्त की कि यह मामला चार दशकों तक लंबित रहा। यह देरी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का सीधा उल्लंघन है।
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जानिए क्या है पूरा मामला
यह मामला 1984 में सामने आया था, जब सुरेंद्र कुमार पर एक निजी फर्म से ₹15,000 की रिश्वत मांगने का आरोप लगा। शिकायतकर्ता हामिद ने इस बात की सूचना केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) को दी थी। सीबीआई की छापेमारी में सुरेंद्र कुमार को रंगे हाथों रिश्वत लेते हुए पकड़ा गया था। लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद वर्ष 2002 में सत्र न्यायालय ने उन्हें दोषी मानते हुए तीन साल की सजा और ₹15,000 का जुर्माना सुनाया। हालांकि, इसके बाद मामला अपील के स्तर पर वर्षों तक अटका रहा। अब, 2025 में जब इस पर सुनवाई हुई, तो सुरेंद्र कुमार की उम्र 90 वर्ष हो चुकी है और वे कई गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हैं। न्यायमूर्ति जसमीत सिंह की एकल पीठ ने माना कि इस उम्र में जेल भेजना उनके जीवन के लिए अपूरणीय क्षति साबित हो सकता है।
सेशन कोर्ट के फैसले को दिल्ली हाईकोर्ट में दी चुनौती
मामला उस समय का है जब भारतीय राज्य व्यापार निगम (STC) के तत्कालीन चीफ मार्केटिंग मैनेजर सुरेंद्र कुमार पर एक निजी फर्म से ₹15,000 की रिश्वत मांगने का आरोप लगा था। शिकायतकर्ता हामिद ने सीबीआई को सूचना दी, और छापेमारी के दौरान सुरेंद्र कुमार रंगे हाथों पकड़े गए। इसके बाद वर्ष 2002 में सत्र न्यायालय ने उन्हें दोषी ठहराते हुए तीन साल की सजा और ₹15,000 के जुर्माने का आदेश दिया। हालांकि, इस निर्णय तक पहुंचने में ही 19 साल लग गए। इसके बाद सुरेंद्र कुमार ने सत्र न्यायालय के फैसले को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी लेकिन यह अपील भी 22 सालों तक लंबित रही। जब यह मामला अंततः 2025 में हाईकोर्ट में सुना गया, तो न्यायमूर्ति जसमीत सिंह की एकल पीठ ने पाया कि दोषी ने 2002 में ही जुर्माना चुका दिया था। इसके अलावा, अदालत ने यह भी माना कि सुरेंद्र कुमार अब 90 वर्ष के हो चुके हैं और गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे हैं। इस स्थिति में जेल भेजना उनके जीवन के लिए अपूरणीय क्षति हो सकता है।
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Published By : Ravindra Singh
पब्लिश्ड 11 July 2025 at 19:58 IST