अपडेटेड 12 July 2024 at 19:41 IST
ओवैसी की तरह मुस्लिम वोट में 'खेला' या दलितों को साधेंगे प्रशांत किशोर? ये है PK की पार्टी का प्लान
अगर पीके इन दो समुदाओं को साधने में सफल रहते हैं तो वो बिहार की सियासत में एक बड़ा नाम बनकर उभर सकते हैं।
- भारत
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बिहार विधानसभा चुनाव को अब महज एक साल और रह गए हैं। ऐसे में सियासी दलों ने इस चुनाव के लिए अपनी तैयारियां शुरू कर दी है। बिहार की सत्ता को पाने के लिए सियासी मैदान पर बिसात बिछनी शुरू हो गई है। इस बार बिहार चुनाव में एक नई सियासी पार्टी मैदान में उतर रही है। ये कोई और नहीं बल्कि चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर हैं। प्रशांत किशोर सियासत में किसी पहचान के मोहताज नहीं है उन्होंने भारतीय जनता पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस, जेडीयू सहित दक्षिण भारत की कई पार्टियों के लिए सफल चुनावी अभियान किए हैं।
प्रशांत किशोर आने वाले 2 अक्टूबर को अपनी सियासी पार्टी का ऐलान करेंगे। पीके ने बिहार में असदद्दीन ओवैसी की तर्ज पर चुनावी अभियान करने का निश्चय किया है। उन्होंने बिहार की लगभग 18 फीसदी मुस्लिम आबादी को ध्यान में रखते हुए 243 में 75 मुस्लिम उम्मीदवार उतारने का प्लान किया है। वहीं इस चुनाव में पीके दलितों पर भी बड़ा दांव खेलने की फिराक में हैं। अगर सूबे में दलित और मुस्लिम समाज की आबादी की गणना करें तो लगभग 37 फीसदी आबादी इन दो समुदायों की है। इसी रणनीति के तहत पीके इस बार ज्यादा से ज्यादा दलित उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारेंगे।
साल 2020 के चुनाव में सीमांचल में ओवैसी को मिली थी सफलता
इसके पहले साल 2020 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में ओवैसी ने मुस्लिम कार्ड खेला था और 5 सीटों पर ओवैसी की पार्टी के विधायक जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। हालांकि पूरे राज्य में कांग्रेस और आरजेडी के गठबंधन के चलते उन्हें ज्यादा बड़ी सफलता नहीं मिल पाई थी। अब बिहार के मुस्लिम वोटों को लेकर प्रशांत किशोर भी एक राजनीतिक बिसात बिछा रहे हैं तो वहीं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी मुस्लिम वोट बैंक को जोड़े रखने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। बिहार में इस बार विधानसभा चुनाव में मुस्लिम वोटों को लेकर सियासी दलों में बड़ा खेला हो सकता है।
मुस्लिम और दलित समीकरण पर PK को मिल सकता है लाभ
अगर बिहार में मुस्लिम आबादी की बात की जाए तो ये लगभग 18 फीसदी है। बिहार में इतनी आबादी किसी भी पार्टी का सियासी खेल बनाने और बिगाड़ने की कूवत रखती है। वहीं इसमें लगभग 19 फीसदी दलितों की आबादी है। अब अगर पीके इन दो समुदाओं को साधने में सफल रहते हैं तो वो बिहार की सियासत में एक बड़ा नाम बनकर उभर सकते हैं। राज्य में आबादी के बाद से ही मुस्लिम और दलित वोट कांग्रेस का परंपरागत वोटर रहा है। 1970 तक मुस्लिम कांग्रेस के साथ रहे लेकिन इसके बाद 1971 में बांग्लादेश के उदय के साथ ही मुस्लिम वोट बैंक की सियासत में परिवर्तन दिखाई दिया। तत्कालीन मुस्लिम नेताओं ने मुसलमानों के बीच कांग्रेस विरोधी अभियान शुरू किए थे।
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बिहार सियासत में ऐसा रहा मुसलमानों का सफर
जेपी आंदोलन में ये बात सामने आ गई थी कि मुसलमान अब कांग्रेस के वोटर नहीं रहे। 1977 में बिहार में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में पहली बार बिहार में जनता पार्टी की सरकार बनी ये पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी। हालांकि ये ज्यादा दिनों तक नहीं चल सका और 1980 में एक बार फिर मुस्लिमों ने कांग्रेस का रुख किया हालांकि ये भी ज्यादा दिनों तक नहीं रहा साल 1990 में राम मंदिर आंदोलन के समय लालू प्रसाद यादव की आरजेडी के उभार के बाद मुस्लिम लालू के साथ चले गए। हालांकि इसके पीछे एक बड़ी वजह भागलपुर के दंगे भी रहे जिसकी वजह से मुस्लिम कांग्रेस छोड़ आरजेडी में भागे। 2005 में मुस्लिम नीतीश के साथ और फिर उसके बाद साल 2015 में लालू और नीतीश एक साथ बिहार में चुनाव में उतरे इस चुनाव में मुस्लिम वोट पूरी तरह से महागठबंधन को पड़ा और इस चुनाव में जीत दर्ज की थी। 2020 में एक बार फिर मुस्लिम वोट बैंक में बड़ा असर दिखा जब ओवैसी 5 सीटों पर जीते।
Published By : Ravindra Singh
पब्लिश्ड 12 July 2024 at 19:41 IST