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Published 23:57 IST, October 3rd 2024

वैवाहिक बलात्कार को अपराध श्रेणी में लाने की दलीलों का केंद्र ने किया विरोध

केंद्र ने SC से कहा है कि यदि किसी व्यक्ति द्वारा अपनी पत्नी के साथ किए यौन कृत्य को रेप की श्रेणी में लाया तो इसका वैवाहिक संबंधों पर गंभीर असर पड़ सकता है।

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Supreme Court
Supreme Court | Image: ANI

केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय से कहा है कि यदि किसी व्यक्ति द्वारा अपनी पत्नी के साथ किये गये यौन कृत्य (सेक्स) को ‘बलात्कार’ की श्रेणी में लाकर उसे दंडनीय बना दिया जाता है, तो इसका वैवाहिक संबंधों पर गंभीर असर पड़ सकता है और इससे विवाह नामक संस्था में गंभीर गड़बड़ी पैदा हो सकती है।

वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में लाये जाने का विरोध करते हुये केंद्र ने शीर्ष अदालत में प्रारंभिक जवाबी हलफनामा दाखिल किया है। कई याचिकाकर्ताओं ने शीर्ष अदालत के समक्ष याचिका दायर कर वैवाहिक बलात्कार को अपराध के दायरे में लाने का अनुरोध किया है।

न्यायालय में इस जटिल कानूनी प्रश्न को उठाने वाली याचिकाएं लंबित हैं कि क्या पति को बलात्कार के अपराध के लिए अभियोजन से छूट मिलनी चाहिए, यदि वह अपनी पत्नी को यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर करता है जो नाबालिग नहीं है ।

भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 375 के अपवाद खंड के तहत किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ संभोग करना या यौन कृत्य करना बलात्कार नहीं है, यदि पत्नी नाबालिग नहीं है। आईपीसी को अब निष्प्रभावी कर दिया गया है और उसके स्थान पर अब नये कानून भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) को लागू किया गया है।

नए कानून के तहत भी, धारा 63 (बलात्कार) के अपवाद दो में कहा गया है कि ‘‘किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ संभोग या यौन कृत्य करना बलात्कार नहीं है, यदि उसकी पत्नी अठारह वर्ष से कम आयु की न हो।’’

केंद्र ने अपने हलफनामें में कहा, ‘‘इसके अलावा, यह प्रस्तुत किया गया है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद 2 को उसकी संवैधानिक वैधता के आधार पर निरस्त करने से विवाह संस्था पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा, यदि किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध या यौन कृत्य को ‘बलात्कार’ के रूप में दंडनीय बना दिया जाता है।’’

इसमें कहा गया है, ‘‘इससे वैवाहिक संबंध पर जबरदस्त प्रभाव पड़ सकता है, और विवाह संस्था में गंभीर गड़बड़ी पैदा हो सकती है।’’

केंद्र ने कहा कि तेजी से बढ़ते और लगातार बदलते सामाजिक एवं पारिवारिक ढांचे में संशोधित प्रावधानों के दुरुपयोग की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि किसी व्यक्ति के लिए यह साबित करना मुश्किल और चुनौतीपूर्ण होगा कि सहमति थी या नहीं।

उसने कहा कि प्रावधान की संवैधानिकता पर निर्णय लेने के लिए सभी राज्यों के साथ उनके विचारों को ध्यान में रखते हुए एक समग्र दृष्टिकोण और परामर्श की आवश्यकता है।

केंद्र ने कहा, ‘‘यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इसमें शामिल मुद्दों का सामान्य रूप से समाज पर सीधा असर पड़ता है और यह भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची की समवर्ती सूची का हिस्सा है।’’

इसने कहा कि इस मामले में शामिल मुद्दा, कानूनी से अधिक एक सामाजिक मसला है और सभी हितधारकों के साथ उचित परामर्श के बिना या सभी राज्यों के विचारों को ध्यान में रखे बिना इस पर फैसला नहीं किया जा सकता है।

हलफनामे में कहा गया है, ‘‘यह प्रस्तुत किया गया है कि बोलचाल की भाषा में ‘वैवाहिक बलात्कार’ के रूप में संदर्भित कृत्य को अवैध और आपराधिक बनाया जाना चाहिए। केंद्र सरकार का कहना है कि विवाह होने से महिला की सहमति को समाप्त नहीं माना जा सकता और इसके उल्लंघन के दंडात्मक परिणाम होने चाहिए। हालांकि, विवाह के भीतर इस तरह के उल्लंघन के परिणाम वैवाहिक संबंधों के बाहर के परिणामों से भिन्न होते हैं।’’

इसमें कहा गया है कि संसद ने विवाह के भीतर सहमति की रक्षा के लिए आपराधिक कानून के प्रावधानों सहित विभिन्न उपाय प्रदान किए हैं।

केंद्र ने कहा, ‘‘हमारे सामाजिक-कानूनी परिवेश में वैवाहिक संस्था की प्रकृति को देखते हुए, यदि विधायिका का यह विचार है कि वैवाहिक संस्था के संरक्षण के लिए, कथित विवादित अपवाद को बरकरार रखा जाना चाहिए, तो यह दलील दी जाती है कि इस न्यायालय के लिए इस अपवाद को रद्द करना उचित नहीं होगा।’’

इसमें कहा गया है कि भारत सरकार प्रत्येक महिला की स्वतंत्रता, गरिमा और अधिकारों की पूरी तरह से और सार्थक रूप से रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध है, जो ‘‘एक सभ्य समाज का मौलिक आधार और स्तंभ’’ हैं।

हलफनामे में कहा गया है कि पति के पास निश्चित रूप से पत्नी की सहमति का उल्लंघन करने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है, हालांकि, भारत में ‘‘बलात्कार’’ की प्रकृति के अपराध को विवाह संस्था से जोड़ना अत्यधिक कठोर है और इसलिये यह असंगत है।

इसने कहा कि इन याचिकाओं में शामिल प्रश्न को केवल एक वैधानिक प्रावधान की संवैधानिक वैधता से संबंधित प्रश्न के रूप में नहीं माना जाना चाहिए, क्योंकि इस विषय-वस्तु के देश में बहुत दूरगामी सामाजिक-कानूनी निहितार्थ हैं और होंगे।

केंद्र ने कहा, ‘‘इसलिए इस मामले में सख्त कानूनी दृष्टिकोण के बजाय व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है।’’

इसने कहा, ‘‘इसलिए, यह सम्मानपूर्वक प्रस्तुत किया जाता है कि यदि विधायिका पतियों को उनकी पत्नियों के विरुद्ध इस तरह के आरोप और इस तरह के आरोपों की कठोरता से छूट देने का फैसला करती है, तो वैवाहिक संबंधों और अन्य संबंधों में मौजूद स्पष्ट अंतर को देखते हुए, उक्त निर्णय और विवेक का सम्मान किया जाना चाहिए और इसमें हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए, खासकर तब जब विधायिका द्वारा अलग से उपयुक्त तैयार दंडात्मक उपाय प्रदान किया जाता है।’’

हलफनामे में कहा गया है कि याचिका के परिणाम का समाज पर बड़ा प्रभाव पड़ेगा, खासकर भारत में विवाह की अवधारणा को देखते हुए, जो व्यक्तियों और परिवार के अन्य लोगों दोनों के लिए सामाजिक और कानूनी अधिकार बनाती है।

प्रधाान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ इस मुद्दे पर विभिन्न दलीलों पर विचार कर रही है।

शीर्ष अदालत ने 16 जनवरी, 2023 को आईपीसी के प्रावधान पर आपत्ति जताने वाली कई याचिकाओं पर केंद्र से जवाब मांगा था। यह प्रावधान पत्नी के वयस्क होने पर पति को जबरन यौन संबंध बनाने पर अभियोजन से सुरक्षा प्रदान करता है।

बाद में, न्यायालय ने इस मुद्दे पर बीएनएस के प्रावधान को चुनौती देने वाली इसी तरह की याचिका पर भी केंद्र को नोटिस जारी किया।

बीएनएस, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, एक जुलाई से प्रभावी हुए, जिन्होंने क्रमशः आईपीसी, दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और साक्ष्य अधिनियम की जगह ली।

Updated 23:57 IST, October 3rd 2024