अपडेटेड 29 September 2021 at 18:44 IST

धर्म और लिंग की दीवार तोड़ मुस्लिम महिला श्मशान घाट में करती है शवों का दाह संस्कार

श्मशान भूमि में हर सुबह पीतल का दिया जला कर मुस्लिम महिला सुबीना रहमान शवों के दाह संस्कार के लिए तैयारी करती हैं।

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| Image: self

त्रिशूर (केरल), श्मशान भूमि में हर सुबह पीतल का दिया जला कर मुस्लिम महिला सुबीना रहमान शवों के दाह संस्कार के लिए तैयारी करती हैं और इस दौरान वह कभी भी अपने धर्म के बारे में नहीं सोचतीं।

उम्र के करीब तीसरे दशक को पार कर रही ,शॉल से सिर ढककर रहने वाली सुबीना रहमान अन्य से बेहतर जानती है कि मौत का कोई धर्म नहीं होता है और सभी को खाली हाथ ही अंतिम सफर पर जाना होता है।

मध्य केरल के त्रिशूर जिले के इरिजालाकुडा में एक हिंदू श्मशान घाट में पिछले तीन साल से शवों का दाह संस्कार कर रही सुबीना स्नातक की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाईं। उन्होंने बताया कि उन्होंने अब तक कई शवों का दाह संस्कार किया है जिनमें करीब 250 शव कोविड-19 मरीजों के भी शामिल हैं। कोविड-19 मरीजों के दाह संस्कार के दौरान घंटों पीपीई किट पहने रहने और पसीने से तर-बतर होने के बावजूद वह दिवंगत आत्मा की शांति के लिए अपने तरीके से प्रार्थना करना नहीं भूलीं।

सुबीना ने लैंगिक धारणा को तोड़ते हुए शवों का दाह संस्कार करने का काम चुना जो आमतौर पर पुरुषों के लिए भी कठिन कार्य माना जाता है। माना जाता है कि दक्षिण भारत में वह पहली मुस्लिम महिला है जिन्होंने यह पेशा चुना है। हालांकि, 28 वर्षीय रहमान बेबाकी से कहती हैं कि वह किसी बंदिश को तोड़ने के लिए इस पेशे में नहीं आई बल्कि अपने परिवार के भरण-भोषण के लिए उन्होंने यह पेशा चुना है ताकि वह अपने पति की मदद कर सकें और बीमार पिता का इलाज करा सकें जो लकड़हारा हैं।

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पेशे को लेकर विरोध होने और मजाक उड़ाए जाने से बेपरवाह सुबीना ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘ बिना हरकत के, बंद आंखों और नाक में रूई भरी लाशों को देखना अन्य लोगों की तरह मेरे लिए भी बुरे सपने की तरह था लेकिन अब लाशें मुझे भयभीत नहीं करतीं।’’

सुबीना ने कहा कि उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी कि वह श्मशान में शवों का दाह संस्कार करेंगी। उनके अनुसार, बचपन में उनका सपना पुलिस अधिकारी बनने का था।

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उन्होंने कहा,‘‘यह किस्मत ही है कि यह काम मेरे कंधों पर आया और मैं इसे पूरी ईमानदारी और प्रतिबद्धता से करती हूं। मुझे यह पेशा चुनने को लेकर कोई अफसोस नहीं है क्योंकि मेरा मानना है कि हर कार्य सम्मानजनक होता है ...मुझे यह काम करके गर्व महसूस होता है।’’

घर का काम पूरा करने के बाद सुबीना सुबह साढ़े नौ बजे श्मशान पहुंच जाती हैं। दो पुरुष सहकर्मियों की मदद से वह परिसर की सफाई करती हैं, एक दिन पहले हुए दाह संस्कार के अवशेष हटाती हैं और दिया जला कर दिन की शुरुआत करती हैं। कोविड काल में उन्हें लगातार 14 घंटे ड्यूटी करना पड़ा था।

उन्होंने बताया ‘‘प्रति शव हमें 500 रुपये मिलते हैं और यह राशि तीन लोगों में बराबर बंटती है। एक दिन में औसतन छह या सात शव आते हैं। कोविड काल में हमें हर दिन 12 शवों का भी दाह संस्कार करना पड़ा। ’’

सुबीना के लिए पांच साल की उस बच्ची का दाह संस्कार बेहद पीड़ादायी था जो खेलते हुए गांव के तालाब में गिर गई थी और उसकी मौत हो गई थी। ‘‘उसके पिता विदेश में थे। अंतिम समय में वे पीपीई किट पहने हुए श्मशान पहुंचे अपनी बेटी को देखने। बहुत तड़प कर रोते हुए उन्होंने बच्ची की मृत देह मुझे अंतिम संस्कार के लिए सौंपी थी और मैं भी खुद पर नियंत्रण नहीं कर पाई।’’

बहरहाल, घर लौटते समय सुबीना अपनी यादों को साथ नहीं ले जाना चाहतीं। हालांकि वह कहती हैं ‘‘हम मौत को रोक नहीं सकते, यह तो आनी है। 

Published By : Press Trust of India (भाषा)

पब्लिश्ड 29 September 2021 at 18:38 IST