अपडेटेड 29 September 2024 at 16:58 IST

वो डायरेक्टर जिसका 'आनंद' बरसों बाद भी दिल के करीब, इन सितारों का बनाया करियर

आनंद मरा नहीं...आनंद मरते नहीं है। वाकई 1971 से ही आनंद हमारे बीच है। और इसे हम तक पहुंचाया ऋषिकेश मुखर्जी ने। डायरेक्टर जो अपने काम में माहिर थे और अक्सर कहते थे सादगी से अपनी बात कहना आसान नहीं।

Hrishikesh Mukherjee
Hrishikesh Mukherjee | Image: IANS

Hrishikesh Mukherjee: आनंद मरा नहीं...आनंद मरते नहीं है। वाकई 1971 से ही आनंद हमारे बीच है। और इसे हम तक पहुंचाया ऋषिकेश मुखर्जी ने। डायरेक्टर जो अपने काम में माहिर थे और अक्सर कहते थे सादगी से अपनी बात कहना आसान नहीं। बावर्ची में उनका किरदार भी तो यही कहता है, इट्स सिंपल टू बी हैप्पी बट डिफिकल्ट टू बी सिंपल।

ऋषिकेश दा को सिंपल कमर्शियल सिनेमा गढ़ने में महारत हासिल थी। फिल्में चुटीले अंदाज में बड़ी बात कह जाती थीं। सहज रिश्तों को बुनने में दादा का कोई सानी नहीं था। किस्सागो थे ऋषि दा। खुद अमिताभ बच्चन मानते थे कि कहानी कहने की कला उन जैसी विरले ही किसी के पास थी। बिग बी पर लगे एंग्री यंग मैन टैग खुरच कर फेंकने का श्रेय इस मिडिल क्लास के किस्सागो को जाता है।

ऋषि दा प्रीच नहीं करते थे उनके सिनेमा को लेखक रमेश ह्यूमन सिनेमा कहते थे। एक टैग भी दिया गया 'मिडिल ऑफ द रोड' का। आखिर मिडिल ऑफ द रोड ही क्यों तो ऐसा इसलिए क्योंकि किरदार गुरबत का रोना नहीं रोते दिखते थे बल्कि पढ़े लिखे, पक्के घर में रहने वाले और अपनी जड़ों से जुड़े होते थे। डायलॉग फिल्मों की जान थे। गोलमाल का 'रामप्रसाद' हो, 'चुपके-चुपके' के जीजाजी हों या फिर खूबसूरत की गर्म मिजाज सासू मां। जेनरेशन गैप को फिल बड़े अदब से करते थे।

धर्मेंद्र और अमिताभ जैसे स्टार्स किसी से डरते थे तो वो ऋषिकेश मुखर्जी ही थे। खाली कैनवास को भरने का काम भी सबसे जुदा था। अमिताभ ने खुद एक इंटरव्यू में बताया था कि सेट पर पहुंचकर स्क्रिप्ट का पता चलता था। वहीं जानते थे कि सीन क्या है। दादा खुद इनैक्ट कर दिखाते थे। बेहद साधारण तरीके से असाधारण बात समझा जाते थे। डायलॉग महज उनके किरदारों के लफ्ज नहीं थे बल्कि कई परिवार उनसे खुद को कनेक्ट कर पाते थे। बरसों बाद भी उत्पल दत्त का उचक कर कहना 'बेटा रामप्रसाद' हो या फिर चुपके चुपके के जीजाजी का हिंदी प्रेम में कहना 'लौहपथ गामिनी विश्रामस्थली'। सभी कुछ ऐसा था जो वर्षों बाद भी दिमाग की स्लेट से मिटा नहीं है।

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किरदारों से ऋषि दा का खास लगाव था। 42 फिल्में डायरेक्ट कीं। जिनमें कहानी आम सी थी पर ट्रीटमेंट बेजोड़। 30 सितंबर 1922 को जन्मे ऋषिकेश मुखर्जी फिल्ममेकर बनने से पहले मैथमेटिक्स पढ़ाते थे। शायद इसलिए सिनेमाई पर्दे की पहेलियों को आसानी से सॉल्व करने का हुनर रखते थे।

फिर मुंबई में कैमरे को समझा, एडिटिंग की बारीकियां जानी और तब जाकर 42 फिल्में गढ़ीं। ये रिश्तों को बुनती थीं। 1966 में आई अनुपमा में बेटी और पिता के प्यार पर फोकस किया, तो 'आनंद' और 'नमक हराम' में दोस्ती का जश्न मनाया। 'गोल माल', 'चुपके-चुपके', 'खूबसूरत' ने हंसाया तो 'सत्यकाम' ने सिस्टम के करप्शन को बखूबी सिल्वर स्क्रीन पर पोट्रे किया। एक बात खास थी इनकी फिल्म में और वो थी नेगेटिव किरदारों को तवज्जो न दिया जाना।

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42 में से ऋषि दा को अपनी 15 फिल्मों से खास लगाव था। बिना लाग लपेट के कहते थे कुछ भी कहें, मेरा मानना है कि मेरी 15 सर्वश्रेष्ठ निर्देशित फिल्में आनंद, मेम-दीदी, नौकरी, सत्यकाम, गुड्डी, बावर्ची, चुपके-चुपके, अर्जुन पंडित, गोलमाल, अभिमान, रंग बिरंगी, नमक हराम, आशीर्वाद, गुड्डी और अनाड़ी हैं।

हिंदी फिल्म को सहज, सर्वप्रिय बनाने वाले ऋषिकेश मुखर्जी का 27 अगस्त 2006 को मुंबई में इलाज के दौरान निधन हो गया। अमिताभ, अमोल पालेकर जैसे कलाकारों की प्रतिभा को बड़े दर्शक वर्ग तक पहुंचाने वाले इस मास्टर को बिग बी अपना गॉड फादर मानते थे। 92वीं जयंती (2014) पर अपने ब्लॉग में बिग बी ने आखिरी मुलाकात का जिक्र किया था। लिखा था- अस्पताल के बिस्तर पर लेटे ऋषि दा ने मुझे अपनी ओर आने का इशारा किया और कांपते हाथों से मेरे सिर पर हाथ रखने के बाद वहां से जाने का इशारा कर दिया। अगले दिन उनके मौत की खबर आई। 

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Published By : Sadhna Mishra

पब्लिश्ड 29 September 2024 at 16:58 IST