अपडेटेड 5 June 2025 at 16:41 IST
Business Idea: ऑटो वाले के आइडिया ने MBA को कर दिया फेल... न गाड़ी न पूंजी हर, महीने 8 लाख की छप्पर फाड़ कमाई
मुंबई में एक ऑटोवाले ने कमाई के लिए दिमाग का ऐसा इस्तेमाल किया कि एमबीए की डिग्री होल्डर भी एक बार चकमा खा जाएगा। ऑटोवाले ने बिना ऑटो चलाए ही एक महीने में 5-8 लाख रुपयों की आमदनी करके दिखा दी है। लेंसकार्ट के सीनियर प्रोडक्ट मैनेजर राहुल रुपानी भी उस ऑटो वाले से बहुत प्रभावित हुए हैं और उसकी स्टोरी को अपने सोशलमीडिया के लिंकडिन अकाउंट पर शेयर किया है।
- बिजनेस न्यूज
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मुंबई की भीड़भाड़ भरी गलियों से एक ऐसी प्रेरणादायक कहानी सामने आई है, जिसने यह साबित कर दिया कि सफलता सिर्फ बड़ी डिग्री, स्टार्टअप फंडिंग या हाई-टेक ऐप्स से नहीं आती बल्कि ज़मीन से जुड़ी सोच, मेहनत और सूझबूझ से भी बड़ा मुकाम हासिल किया जा सकता है। इस कहानी के केंद्र में हैं एक साधारण ऑटो ड्राइवर, जिन्होंने बिना किसी औपचारिक शिक्षा या तकनीकी पृष्ठभूमि के, ऐसा व्यवसाय खड़ा किया कि आज उनकी मासिक कमाई 5 से 8 लाख रुपये तक पहुंच चुकी है। सबसे खास बात यह है कि अब वे खुद ऑटो भी नहीं चलाते, बल्कि एक संगठित बिज़नेस मॉडल के ज़रिए कई लोगों को रोज़गार भी दे रहे हैं। ऑटो चलाने वाले इस शख्स ने न तो किसी मोबाइल ऐप का सहारा लिया, न ही किसी बड़े निवेशक का सिर्फ अपने अनुभव, ग्राहक सेवा और भरोसे की बुनियाद पर यह मुकाम हासिल किया। उनकी सफलता की यह कहानी अब सोशल मीडिया पर मिसाल बन चुकी है। लोग इस ऑटोवाले को न सिर्फ एक उद्यमी के रूप में देख रहे हैं, बल्कि एक उम्मीद की रौशनी के तौर पर भी, जो बताती है कि अगर इरादे मजबूत हों, तो साधन मायने नहीं रखते।
LensKart में सीनियर प्रोडक्ट लीडर राहुल रूपानी ने हाल ही में LinkedIn पर एक अनुभव साझा किया, जो न केवल चौंकाने वाला था, बल्कि प्रेरणादायक भी। यह घटना मुंबई स्थित US Consulate के बाहर हुई, जहां राहुल अपने वीजा अपॉइंटमेंट के लिए पहुंचे थे। जैसे ही वे अंदर जाने लगे, उन्हें बताया गया कि बैग भीतर ले जाने की अनुमति नहीं है, और हैरानी की बात यह थी कि वहां कोई लॉकर या स्टोरेज सुविधा भी उपलब्ध नहीं थी। परेशानी बढ़ ही रही थी कि तभी एक ऑटो ड्राइवर पास आया और बेहद शांति से बोला, 'सर, बैग दे दो। सेफ रखूंगा। रोज़ का है। 1,000 रुपये चार्ज है।' पहली नज़र में यह एक मामूली पेशकश लग सकती थी, लेकिन राहुल ने तुरंत समझा कि यह दरअसल एक बड़े विज़न और अवसर को भुनाने वाला व्यावसायिक मॉडल है। दूतावास के बाहर प्रतिदिन सैकड़ों लोग इसी समस्या का सामना करते हैं और यह ऑटो ड्राइवर उसी जरूरत को लक्ष्य बनाकर सेवा प्रदान कर रहा था। न लॉकर, न दुकान, न ऐप बस भरोसे का बिजनेस।
ऑटो ड्राइवर ने सूझबूझ से खड़ा किया बड़ा बिजनेस
इस अनुभव ने यह दिखा दिया कि साधारण परिस्थितियों में भी असाधारण अवसर छिपे होते हैं, बशर्ते देखने का नजरिया हो। यह ऑटो ड्राइवर महज एक सुविधा नहीं दे रहा था वह समस्या का व्यावसायिक समाधान बन चुका था, वह भी बिना किसी डिजिटल सपोर्ट के। राहुल ने अपने पोस्ट में लिखा कि यह अनुभव उनके लिए एक यादगार सबक था कि उद्यमशीलता डिग्री या स्टार्टअप फंडिंग की मोहताज नहीं होती, बल्कि ज़रूरत की पहचान और भरोसे के रिश्ते से भी एक मजबूत बिजनेस खड़ा किया जा सकता है।राहुल रूपानी ने अपने साझा किए गए अनुभव में उस शख्स के आइडिया के बारे में बताया, जिसने लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि असली उद्यमिता क्या होती है। यह घटना मुंबई स्थित US वीज़ा सेंटर के बाहर की है, जहां एक साधारण-से दिखने वाले ऑटो ड्राइवर ने असाधारण सूझबूझ से एक मजबूत बिजनेस खड़ा कर लिया है।
'बैग दे दो साहब सेफ रखूंगा सिर्फ 1000 रुपए चार्ज हैं'
राहुल ने सोशल मीडिया पर लिखा कि जब उन्हें वीज़ा अपॉइंटमेंट के लिए भीतर जाने से पहले अपना बैग बाहर छोड़ने की ज़रूरत पड़ी और कोई लॉकर या सुविधा नहीं मिली, तब वही ऑटो ड्राइवर उनके पास आया और बोला, 'सर, बैग दे दो। सेफ रखूंगा। रोज़ का है। 1,000 रुपये चार्ज है।' राहुल ने आगे बताया कि अगर यह ड्राइवर रोज़ाना 20–30 ग्राहकों के बैग रखता है, तो 1,000 रुपये प्रति बैग के हिसाब से उसकी दैनिक कमाई 20,000 से 30,000 रुपये तक पहुंच जाती है। यानी महीने में यह सीधा-सीधा 5 से 8 लाख रुपये तक की आय करता है वो भी बिना किसी ऑफिस, ऐप या डिग्री के।यह ऑटोवाला रोज़ US Consulate के बाहर खड़ा रहता है, और एक ज़रूरत को पहचानकर उसे सेवा में बदलने का बेहतरीन उदाहरण बन चुका है। उसकी यह पहल अब सोशल मीडिया पर 'लोकल जीनियस' की मिसाल बन गई है। यह कहानी इस बात को साफ करती है कि सफलता महंगी पढ़ाई या कॉरपोरेट जॉब से नहीं, बल्कि मौके को पहचानने और उस पर भरोसे के साथ काम करने से मिलती है।
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सच्ची उद्यमिता किताबों में नहीं बल्क सड़कों पर मिलती है
मुंबई के US वीज़ा सेंटर के बाहर एक ऑटो ड्राइवर ने बिना किसी स्टार्टअप, ऐप या कोडिंग के ऐसा बिजनेस मॉडल खड़ा किया, जिसे राहुल रूपानी ने ‘हाइपर-स्पेसिफिक समस्या का मास्टर सॉल्यूशन’ कहा है। वीज़ा सेंटर के अंदर बैग ले जाने की अनुमति नहीं होती, और बाहर कोई लॉकर सुविधा नहीं। इस ऑटो ड्राइवर ने स्थानीय पुलिस अधिकारी से टाई-अप कर पास के लॉकर का उपयोग शुरू किया। ग्राहक को लगता है बैग ऑटो में है, लेकिन असल में वो सुरक्षित, कानूनी और व्यवस्थित तरीके से लॉकर में रखा जाता है। हालांकि 1,000 रुपये प्रति बैग शुल्क को लेकर नैतिक सवाल भी उठ रहे हैं, क्योंकि सामान्य लॉकर फीस 50–100 रुपये होती है। फिर भी, यह उदाहरण बताता है कि सच्ची उद्यमिता किताबों में नहीं, सड़कों पर मिलती है जहां इंसान समस्या को समझता है, भरोसा बनाता है और हल निकालता है।
Published By : Ravindra Singh
पब्लिश्ड 5 June 2025 at 16:41 IST