अपडेटेड 8 April 2025 at 18:34 IST
Waqf Law: वक्फ कानून पर ओवैसी ने खटखटाया SC का दरवाजा, तो जानिए CAA समेत वो 5 बड़े कानून, जिसे कोर्ट में घसीटा तो क्या हुआ?
ये कोई पहला मौका नहीं है जब मोदी सरकार द्वारा लाए गए कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है।
वक्फ (संशोधन) अधिनियम 2025 को संसद के दोनों सदनों से पास होने के बाद इस बिल को राष्ट्रपति से भी मंजूरी मिल गई और ये कानून बन गया लेकिन इसके बावजूद इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। इस एक्ट के खिलाफ 14 याचिकाएं दायर की गई हैं। इन याचिकाओं में याचिकाकर्ता यह आरोप लगा रहे हैं कि यह संशोधन भेदभावपूर्ण है और संविधान के आर्टिकल 25 का उल्लंघन करता है। उनके अनुसार, इस कानून के जरिए धार्मिक मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप किया गया है, जो संवैधानिक रूप से उचित नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने इन याचिकाओं पर विचार करने के लिए सहमति दी है और वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 की संवैधानिक वैधता पर सुनवाई करेगा।
आपको बता दें कि ये कोई पहला मौका नहीं है जब मोदी सरकार द्वारा लाए गए कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। पिछले एक दशक में केंद्र सरकार के कई कानूनों को लेकर उनकी संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाए गए हैं। इन कानूनी चुनौतियों का आधार मुख्य रूप से संवैधानिक वैधता, मौलिक अधिकारों का उल्लंघन और विधायी अधिकार क्षेत्र में अत्यधिक हस्तक्षेप रहा है। इनमें निजता, समानता, संघवाद, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और न्यायिक स्वतंत्रता जैसे संवैधानिक मुद्दे भी शामिल हैं। इन मामलों ने स्पष्ट रूप से विधायिका और संविधान के बीच शक्ति-संतुलन की जटिलताओं को उजागर किया है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने हमेशा इस संतुलन को बनाए रखने का कार्य किया है। यह घटनाक्रम राजनीति के लिहाज से महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह न केवल मौजूदा सरकार की कानून बनाने की प्रक्रिया को चुनौती देता है, बल्कि यह देश के संवैधानिक तंत्र में न्यायपालिका की महत्वपूर्ण भूमिका को भी सामने लाता है।
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) अधिनियम, 2014
भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर अक्सर बहस होती रही है, और 2014 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) अधिनियम ने इस मुद्दे को और गंभीर बना दिया। दरअसल, NJAC अधिनियम का उद्देश्य था भारतीय न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम सिस्टम को समाप्त कर एक नया प्रस्तावित निकाय, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग, स्थापित करना। इस आयोग में उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के चयन और नियुक्ति का निर्णय लिया जाता, जिससे सरकार को भी इसमें हिस्सेदारी मिलती। इस व्यवस्था का विरोध भी काफी तेज हुआ। न्यायिक स्वतंत्रता को लेकर कई सवाल उठे, क्योंकि यह आरोप लगाया गया कि इस प्रणाली के लागू होने से न्यायपालिका पर सरकार का अत्यधिक दबाव बढ़ सकता था, जिससे न्यायिक स्वतंत्रता, जो भारतीय संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है, खतरे में पड़ सकती थी। विपक्ष और न्यायपालिका के कुछ सदस्य इस कदम को लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ मानते थे। 2015 में यह विवाद सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, जब कोर्ट ने NJAC अधिनियम और 99वें संविधान संशोधन को असंवैधानिक करार दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय में कहा कि यह संशोधन संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ था और इससे न्यायिक स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता। इसके बाद, कॉलेजियम प्रणाली को फिर से बहाल कर दिया गया, जो कि उच्च न्यायपालिका में न्यायधीशों की नियुक्ति के मामले में न्यायपालिका द्वारा खुद तय की जाती है।
आधार अधिनियम, 2016
भारत में आधार अधिनियम को लेकर एक बड़ी कानूनी और राजनीतिक जंग छिड़ी थी, जब इसे 2016 में लागू किया गया। सरकार ने इसे विकासात्मक योजनाओं में पारदर्शिता और लाभार्थियों की पहचान सुनिश्चित करने के लिए एक अहम कदम बताया था। लेकिन इसके खिलाफ विरोध भी तेज हो गया, खासकर उन लोगों के बीच जो इसे निजता के अधिकार का उल्लंघन मानते थे। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि आधार अधिनियम न केवल संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का उल्लंघन करता है, बल्कि यह व्यक्तिगत निजता पर भी गहरा आघात करता है। उनका यह भी आरोप था कि अधिनियम के जरिए देश भर में सामूहिक निगरानी की अनुमति दी जा रही थी, जो नागरिकों के अधिकारों के खिलाफ है। आलोचकों का यह भी कहना था कि सरकार ने इसे मनी बिल के रूप में पारित कर राज्यसभा की समीक्षा से बचा लिया, जिससे इसे बिना पर्याप्त विचार विमर्श के लागू किया गया। यह मामला जब सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा, तो यह सिर्फ कानूनी नहीं, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर भी एक अहम बहस का विषय बन गया। 2018 में इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया। अदालत ने आधार अधिनियम की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, लेकिन इसके साथ ही कुछ महत्वपूर्ण प्रावधानों को असंवैधानिक करार भी दिया। कोर्ट ने यह साफ किया कि आधार का उपयोग निजी संस्थाओं द्वारा नहीं किया जा सकता और इसे केवल कुछ सीमित सेवाओं के लिए अनिवार्य किया जा सकता है।
नागरिकता संशोधन अधिनियम ( CAA ), 2019
भारत में 2019 में पारित नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) ने राजनीतिक और सामाजिक हलकों में एक बड़ी बहस को जन्म दिया है। इस कानून के तहत पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए गैर-मुस्लिम प्रवासियों हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान था। सरकार ने इसे धार्मिक उत्पीड़न से बचाने के लिए एक मानवीय कदम बताया, लेकिन इस कानून को लेकर आलोचनाओं का भी एक तूफान उठा, खासकर मुसलमानों और विपक्षी दलों से। इस संशोधन अधिनियम पर सबसे बड़ी आपत्ति यह थी कि यह मुसलमानों को बाहर रखता है, जिससे यह आरोप लगा कि यह कानून अनुच्छेद 14 (समानता) का उल्लंघन करता है। आलोचकों का कहना था कि यह कानून भारत के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को कमजोर करता है, क्योंकि यह धर्म के आधार पर नागरिकता प्रदान करने की बात करता है, जो संविधान के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। इस मुद्दे को लेकर कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं, जिसमें सवाल उठाया गया है कि क्या यह कानून संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के खिलाफ है, जो नागरिकों को समानता, भेदभाव रहित अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हैं। इन याचिकाओं में यह भी दलील दी जा रही है कि यह कानून भारतीय मुस्लिम समुदाय को अलग-थलग करता है और धार्मिक आधार पर भेदभाव को बढ़ावा देता है। अप्रैल 2025 तक कोई अंतिम फैसला नहीं आया है।
मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019
भारत में तीन तलाक (ट्रिपल तलाक) के मुद्दे पर एक नया मोड़ आया जब 2019 में सरकार ने तीन तलाक को अपराध बनाने वाला कानून पारित किया। यह कानून तीन तलाक, यानी एक बार में तीन बार तलाक बोलने की प्रथा को गैरकानूनी और अपराध घोषित करता है। सरकार ने इसे मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा और उनके खिलाफ होने वाले भेदभाव को समाप्त करने के उद्देश्य से एक ऐतिहासिक कदम बताया। लेकिन इसके विरोध में एक बड़ा राजनीतिक और कानूनी संघर्ष खड़ा हो गया है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में पहले ही तीन तलाक को असंवैधानिक और अमान्य कर दिया था। उनका तर्क था कि जब अदालत ने इसे पहले ही अवैध करार दे दिया था, तो इसे फिर से अपराध बनाना बेवजह है। इसके अलावा, आलोचकों ने यह भी आरोप लगाया कि यह कानून केवल मुस्लिम पुरुषों को निशाना बनाता है, जबकि यह पूरी प्रथा को एक धर्म विशेष से जोड़ने की कोशिश करता है। उनके अनुसार, यह मुस्लिम समुदाय के खिलाफ एक सख्त कदम है, जो धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। मुस्लिम समुदाय और विपक्षी दलों ने इस कानून को लेकर तीव्र आलोचना की है, यह कहते हुए कि यह कानून महिलाओं को लेकर सरकार की कथित चिंता के बजाय, मुस्लिम परिवारों के मामलों में हस्तक्षेप करने का एक राजनीतिक औजार बन चुका है। उनका कहना है कि इससे मुस्लिम समुदाय के बीच सामाजिक और धार्मिक ध्रुवीकरण बढ़ सकता है, जो देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के लिए खतरे की बात है। वहीं, सरकार का कहना है कि यह कानून मुस्लिम महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए आवश्यक था, और यह सुनिश्चित करने के लिए कि मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी को बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के तलाक न दे सकें। इसे सरकार ने महिला सशक्तिकरण के एक बड़े कदम के रूप में पेश किया। ये मामला अभी विचाराधीन है।
भारतीय न्याय संहिता (BNS), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA), 2023
भारत में आपराधिक कानूनों में हाल ही में किए गए संशोधन ने राजनीतिक हलकों में भारी हलचल मचाई है। नए आपराधिक कानूनों को भारतीय दंड संहिता (IPC), दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC), और साक्ष्य अधिनियम (Evidence Act) की जगह लाया गया, जो पहले से ही स्थापित थे। इन नए कानूनों में कुछ ऐसे प्रावधान जोड़े गए हैं, जिन पर विवाद खड़ा हो गया है, खासकर राजद्रोह जैसे संवेदनशील प्रावधानों की वापसी को लेकर। आलोचकों का कहना है कि इन नए कानूनों में ऐसे प्रावधान शामिल किए गए हैं, जो न्यायिक स्वतंत्रता को कमजोर कर सकते हैं और राजनीतिक विरोध को दमन करने का एक नया हथियार बन सकते हैं। राजद्रोह जैसे प्रावधानों को वापस लाने से यह आशंका जताई जा रही है कि सरकार राजनीतिक विरोधियों को दबाने के लिए इस कानून का दुरुपयोग कर सकती है। इससे लोकतंत्र की बुनियादी धारणा पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं, क्योंकि यह कदम एक तरह से विरोध की आवाज़ को दबाने की कोशिश प्रतीत हो सकता है। इन नए आपराधिक कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं लंबित हैं, और कोर्ट ने इस मामले पर अब तक कोई अंतिम निर्णय नहीं दिया है। हालांकि, कोर्ट के फैसले का इंतजार करते हुए यह मामला राजनीतिक मोर्चे पर गरमा गया है। जहां एक ओर सरकार इसे देश की सुरक्षा और कानूनी प्रक्रिया को मजबूत करने का एक कदम मानती है, वहीं विपक्षी दल और नागरिक अधिकार संगठन इसे लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हमला मानते हैं।
Published By : Ravindra Singh
पब्लिश्ड 8 April 2025 at 17:59 IST