अपडेटेड 30 October 2025 at 20:29 IST

छात्र राजनीति से CM की कुर्सी तक... कभी बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में वाहवाही लूटने वाले लालू यादव कैसे पहुंचे अर्श से फर्श तक?

लालू प्रसाद यादव का मुख्यमंत्री बनना सिर्फ एक चुनावी जीत नहीं थी, बल्कि यह सामाजिक न्याय की राजनीति का तूफान था, जिसने बिहार में दशकों से चले आ रहे राजनीतिक समीकरणों को उखाड़ फेंका।

Follow :  
×

Share


'6 या 11, NDA नौ दो ग्यारह...', बिहार चुनाव की तारीखों के ऐलान होते ही कूद पड़े लालू यादव; एनडीए पर ऐसे कसा तंज | Image: ANI

अगर हिंदुस्तान की राजनीति में किसी की कहानी एकदम फिल्मी है तो वो हैं लालू प्रसाद यादव। इस कहानी का ट्रेलर शुरू होता है उनकी छात्र राजनीति से, वो भी कहां? पटना यूनिवर्सिटी में। लालू का स्टाइल हमेशा से देसी रहा है, एकदम ठेठ गंवई अंदाज। जब 1970 के दशक में पटना यूनिवर्सिटी में पॉलिटिक्स चलती थी, तब वहां सवर्ण जातियों का दबदबा था। लेकिन 1973 में, लॉ कॉलेज में दाखिला लेने वाले इस युवा ने कुछ ऐसा किया, जिसने बिहार की सियासत का रुख ही बदल दिया।

लालू प्रसाद यादव ने पटना यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स यूनियन (PUSU) का अध्यक्ष पद का चुनाव जीत लिया। ये जीत सिर्फ एक चुनाव नहीं थी, बल्कि पिछड़ी जाति से आने वाले एक युवा के लिए ये प्रतीकात्मक तौर पर बहुत बड़ी सफलता थी। ये दिखाता था कि अब यूनिवर्सिटी कैंपस में पिछड़ों की आवाज भी बुलंद हो सकती है। लालू ने अपने हाज़िर-जवाबी और अनोखे अंदाज से छात्रों के दिल में जगह बना ली थी।

जेपी आंदोलन: छात्र नेता से 'क्रांति' का सिपाही

लालू की छात्र राजनीति का दूसरा और सबसे बड़ा टर्निंग पॉइंट आया जेपी आंदोलन में। 1974 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने जब गुजरात और बिहार में बढ़ते छात्र असंतोष को एक संपूर्ण क्रांति का नारा दिया, तो लालू प्रसाद यादव ने इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। लालू, उस वक्त छात्र संघर्ष समिति के अध्यक्ष बनाए गए थे। इसी आंदोलन ने उन्हें भविष्य के बड़े राष्ट्रीय नेता बनने की ट्रेनिंग दी। यहां उन्हें नीतीश कुमार और सुशील कुमार मोदी जैसे कई साथी मिले, जिन्होंने आगे चलकर बिहार की राजनीति पर राज किया। जेपी आंदोलन की आग में तपकर निकले लालू, अब महज़ एक यूनिवर्सिटी लीडर नहीं रहे थे, बल्कि आम आदमी की समस्याओं को समझने वाले एक सियासी शख्सियत बन चुके थे।

युवा सांसद: जेपी आंदोलन के बाद जब आपातकाल खत्म हुआ, तो लालू का राजनीतिक कद आसमान छू गया। लालू ने जनता पार्टी के टिकट पर लोकसभा चुनाव जीता और 29 साल की उम्र में सबसे युवा सांसदों में से एक बने। इस तरह, उनकी छात्र राजनीति सीधे दिल्ली की राजनीति तक जा पहुंची। 1979 में जनता पार्टी की सरकार गिर गई। इसके बाद1980 में हुए आम चुनाव में लालू चुनाव हार गए। उसी साल बिहार विधानसभा चुनाव जीतकर वे राज्य विधानसभा जा पहुंचे। 1985 में फिर से विधायक बने। इस दौरान उन्होंने सदन के भीतर अपने देसी स्टाइल और सवाल उठाने की क्षमता से अपनी पहचान मजबूत की।

बिहार की राजनीति में नंबर दो

लालू उस वक्त जनता दल के एक कद्दावर नेता के रूप में उभर चुके थे। उनकी पकड़ पिछड़े वर्ग के मतदाताओं पर मजबूत होती जा रही थी। कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु के बाद, बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता का पद खाली हो गया। जनता दल के अंदर कई बड़े नेता मौजूद थे, लेकिन लालू प्रसाद यादव अपनी लोकप्रियता, जन-आधार और सामाजिक समीकरणों के कारण इस दौड़ में आगे निकल गए। पार्टी ने उन्हें 1989 में बिहार विधानसभा में विपक्षी दल का नेता चुन लिया।

नेता प्रतिपक्ष बनते ही लालू बिहार की राजनीति में नंबर दो की हैसियत पर आ गए थे। इसी साल (1989) उन्होंने छपरा से लोकसभा चुनाव भी जीता, लेकिन विपक्ष के नेता के तौर पर बिहार की राजनीति में उनकी मौजूदगी बनी रही। यह वह समय था जब भागलपुर दंगे हुए और कांग्रेस का पारंपरिक वोट बैंक (यादव, मुस्लिम) उससे दूर जाने लगा। लालू ने इस गैप को भरा और खुद को इन वर्गों के एकमात्र मज़बूत नेता के रूप में स्थापित किया।

1990 तक, उन्होंने खुद को यादवों और निचली जातियों के नेता के रूप में स्थापित कर लिया था। मुसलमान, जो पारंपरिक रूप से कांग्रेस के वोट बैंक थे, 1989 की भागलपुर हिंसा के बाद लालू के समर्थन में आ गए। वे बिहार के युवा मतदाताओं के बीच लोकप्रिय हो गए।

'लालू राज' की शुरुआत

लालू प्रसाद यादव का मुख्यमंत्री बनना सिर्फ एक चुनावी जीत नहीं थी, बल्कि यह सामाजिक न्याय की राजनीति का तूफान था जिसने बिहार में दशकों से चले आ रहे राजनीतिक समीकरणों को उखाड़ फेंका। 1990 का विधानसभा चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक था। केंद्र में वीपी सिंह की सरकार थी, जिन्होंने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करके पिछड़ी जातियों को आरक्षण दिया था। मंडल की राजनीति से बिहार में जबरदस्त जातिगत गोलबंदी हुई। जनता दल सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए पार्टी के अंदर कड़ा मुकाबला शुरू हो गया। लालू प्रसाद यादव पिछड़ी जातियों, खासकर यादव और मुस्लिम समुदाय के बीच उनकी लोकप्रियता चरम पर थी। वह जनता दल के सबसे लोकप्रिय और ज़मीनी चेहरा थे। लालू 42 साल की उम्र में मुख्यमंत्री बने। यह बिहार में पिछड़ों के राजनीतिक सशक्तिकरण के एक नए युग की शुरुआत थी, जिसे लोगों ने प्यार से 'लालू राज' कहा।

इसके बाद लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में जनता दल ने 1995 का बिहार विधानसभा चुनाव एक ऐतिहासिक जीत के साथ जीता। यह जीत 1990 की सफलता की पुनरावृत्ति थी, जिसने बिहार की राजनीति में लालू की पकड़ को और भी मजबूत कर दिया। यह जीत लालू यादव की ज़मीनी राजनीति, उनके सामाजिक समीकरण और विपक्षी खेमे में हुई फूट का नतीजा थी। लालू यादव ने 1990 में जो *मुस्लिम (M) और यादव (Y) वोटों का मजबूत समीकरण बनाया था, वह 1995 तक पूरी तरह से संगठित और अटूट हो चुका था। मुस्लिम समुदाय राम मंदिर आंदोलन के चरम पर होने के कारण लालू को धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े रक्षक के रूप में देखता था, खासकर लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को बिहार में रोकने के उनके साहसी कदम के बाद। यादव समुदाय, जो सबसे बड़ा OBC समूह है, लालू को अपने नेता के रूप में मानता था, जिसने उन्हें पहली बार सत्ता के शिखर पर पहुंचाया। इस वोट बैंक ने एकजुट होकर जनता दल को वोट दिया।

लालू ने पिछड़े और अति-पिछड़े वर्गों को सत्ता देने का नारा दिया। उनके शासनकाल में निचले तबकों को पहली बार यह एहसास हुआ कि सत्ता में उनकी भागीदारी है। लालू की अपनी लोकलुभावन शैली और देहाती अंदाज़ ने उन्हें गरीबों और वंचितों का मसीहा बना दिया, जिसने उन्हें एक बड़ा जनाधार दिया।

चारा घोटाला और ‘जंगल राज’ 

चारा घोटाला बिहार के पशुपालन विभाग से जुड़ा हुआ था, इसलिए इसे 'चारा घोटाला' नाम दिया गया। यह मामला लालू राज का है। इसमें अधिकारियों, राजनेताओं और बेईमान सप्लायर्स ने मिलकर सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये की लूट की थी। सारा खेल फर्जी बिलों का था। कागज़ों पर यह दिखाया गया कि पशुओं के चारे, दवाइयों और उपकरणों की खरीद की जा रही है, जबकि हकीकत में यह सामान या तो कभी खरीदा ही नहीं गया, या बहुत कम मात्रा में खरीदा गया। पैसा सीधे सरकारी कोषागारों से निकाल लिया गया। शुरू में मामला करोड़ों का था, लेकिन जांच आगे बढ़ने पर यह पता चला कि यह सैकड़ों करोड़ रुपये की सरकारी लूट थी। यह घोटाला पहली बार 1996 को सामने आया, जब चाईबासा ट्रेजरी से गलत तरीके से पैसे निकाले जाने का खुलासा हुआ।

मामला इतना बड़ा था कि पटना हाई कोर्ट ने इसकी जांच CBI को सौंप दी। यह जांच कोर्ट की निगरानी में चली, जिससे राजनीतिक दबाव काम नहीं कर सका। CBI जांच में तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव पर इस बड़े घोटाले में आपराधिक साज़िश रचने और मिलीभगत का आरोप लगा। उन पर विभिन्न कोषागारों से अवैध निकासी का आरोप लगा। जून 1997 में CBI ने जब इस मामले में चार्जशीट दाखिल की, तो लालू पर इस्तीफा देने का भारी दबाव पड़ा। इसके बाद लालू यादव ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया लेकिन अपनी जगह उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का नया मुख्यमंत्री बना दिया। इसके साथ ही लालू यादव ने अपनी एक नई पार्टी 'राष्ट्रीय जनता दल (RJD)' बना ली।

साल1999 आते आते राष्ट्रीय जनता दल सरकार पर 'जंगल राज' के गंभीर आरोपो लगने लगे क्योंकि बिहार में कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ चुकी थी।राज्य में अपहरण, हत्या और जातिगत हिंसा की घटनाओं में भारी वृद्धि हुई थी। 1999 में दलितों और भूमिहीन मजदूरों के खिलाफ कई बड़ी हिंसा की घटनाएं हुईं, जिसने कानून-व्यवस्था की स्थिति को गंभीर बना दिया। फरवरी 1999 में, बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। आगे सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दखल दिया। कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन के फैसले को रद्द कर दिया।

साल 2000 में बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (RJD) की सरकार बनना लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक चतुराई का नतीजा था। चुनाव में किसी भी गठबंधन को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था, जिसका फायदा लालू यादव ने उठाया। RJD सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, लेकिन सरकार बनाने के लिए उसे 39 सीटों की कमी थी। लालू यादव ने अपनी पुरानी रणनीति के तहत कांग्रेस और अन्य छोटे दलों के साथ मिलकर सरकार बनाने के लिए बहुमत जुटा लिया।

रेलमंत्री के रूप में लालू

लोकसभा चुनाव 2004 में राजद ने बिहार में 21 सीटें जीतीं और लालू देश के रेल मंत्री बन गए। लालू यादव का कार्यकाल भारतीय रेलवे के इतिहास में एक कायापलट के लिए याद किया जाता है। उनका कार्यकाल विवादों और प्रशंसा दोनों से घिरा रहा, लेकिन यह बात निर्विवाद है कि उन्होंने एक घाटे में चल रहे विभाग को भारी मुनाफे वाले संगठन में बदल दिया। लालू यादव के कार्यकाल में भारतीय रेलवे ने लगभग ₹90,000 करोड़ का शुद्ध नकद अधिशेष हासिल किया। जब उन्होंने पद संभाला था, तब रेलवे एक घाटे में चलने वाला संगठन था। यह मुनाफा यात्री किराए बढ़ाए बिना, बल्कि माल ढुलाई परिचालन में सुधार करके हासिल किया गया था। उन्होंने मालगाड़ियों के डिब्बों की टर्नअराउंड समय (माल लादने और उतारने में लगने वाला समय) को कम किया। उन्होंने खाली चल रहे वैगनों का अधिकतम उपयोग करने के लिए माल ढुलाई की दरें तर्कसंगत बनाईं, खासकर 'पीक' और 'लीन' सीजन में छूट देकर।

2006 में, लालू यादव ने 'गरीब रथ' एक्सप्रेस ट्रेन की शुरुआत की। इसका उद्देश्य आम लोगों को किफायती दर पर वातानुकूलित (AC) यात्रा प्रदान करना था, जिससे गरीब और मध्यम वर्ग के लोग भी कम खर्च में AC में सफर कर सकें। उन्होंने यात्री किराया नहीं बढ़ाया, बल्कि कुछ मामलों में कम भी किया, जिससे आम जनता को राहत मिली। उन्होंने ट्रेनों की लंबाई बढ़ाने (अतिरिक्त कोच जोड़कर) पर ध्यान केंद्रित किया, जिससे अधिक यात्रियों को समायोजित किया जा सके और आय बढ़ाई जा सके। लालू यादव ने रेलवे के बुनियादी ढांचे और विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए कई नई परियोजनाओं को मंजूरी दी। उन्होंने बिहार में रेलवे के पहिए के कारखाने जैसे कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों की स्थापना में भूमिका निभाई।

सत्ता से हुए दूर

लालू 2009 का लोकसभा चुनाव जीते लेकिन 2013 में चारा घोटाले के कारण उनको लोकसभा की सदस्यता भी गंवानी पड़ी और वह चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य हो गए। 2005 में बिहार चुनाव में एनडीए की जीत के बाद राजद सत्ता से दूर हो गई थी और 2009 में उसका लोकसभा चुनाव में प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा था। 2010 के विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में भी पार्टी को नुकसान ही हुआ।

RJD की सियासी वापसी

2015 में लालू यादव ने नीतीश कुमार के साथ मिलकर बिहार चुनाव लड़ा और राजद की सियासी वापसी हुई। हालांकि 2017 में नीतीश कुमार ने RJD का साथ छोड़ एनडीए का दामन थाम लिया। 2019 के चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। इसके अगले साल 2020 में आरजेडी तेजस्वी यादव के नेतृत्व में बिहार विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी लेकिन सरकार नहीं बना सकी। 2022 में नीतीश एक बार फिर आरजेडी के साथ आए लेकिन 2024 में एक बार फिर एनडीए के पास चले गए।   

चारा घोटाले की सजा और खराब तबीयत ने लालू यादव के सक्रिय राजनीतिक करियर पर विराम लगा दिया, लेकिन वह RJD के मुखिया और बिहार की राजनीति के सबसे बड़े चेहरे आज भी बने हुए हैं।

यह भी पढ़ें- 'राहुल बाबा जब-जब PM मोदी को अपशब्द बोले, कांग्रेस का...', अमित शाह गरजे

Published By : Sujeet Kumar

पब्लिश्ड 30 October 2025 at 20:29 IST